ऐसा जाप जपो मन लाई , सोहं सोहं अजपा गाई ! टेक !!
आसण दिढ़ करि धरो धियान , अहनिस सुमिरों ब्रह्म गियान !
जाग्रत न्यन्द्रा सुलप आहारम , काम क्रोध अहंकार निवारम ! 1 !
नासा अग्र निजु ज्यो बाई , इडा पिंगला मधि समाई ! 2 !
छ्से संहस इकीसो जाप , अनहद उपजे आपहि आप !
बंकनाल में उगे सूर , रोम रोम धुनि बाजे तूर ! 3 !
उलटे कमल सहंस्त्रदल वास , भ्रमर गुफा महि जोति प्रकास !
सुनि मथुरा शिव गोरख कहे , परम तत ते साधु लहे ! 4 !! 30 !!
गोरख नाथ जी कहते है - मन लगाकर ऐसा जाप जपो कि " सोऽहं - सोऽहं " का वाणी के उपयोग के बिना अजपा गान ( अजपा - जाप ) हो जाये ! दृढ आसन पर बेठकर ध्यान करो और रात-दिन ब्रह्मज्ञान का स्मरण करो ! निंद्रा में जागरण करो यानि जगत की ओर सोकर अध्यात्म में जागो ! भोजन थोड़ा करो ! काम क्रोध और अहंकार का निवारण करो ! इड़ा और पिंगला में समाई हुई नासाग्र तक जिसका विस्तार है ( प्राण वायु का निवास नासारंध्रो से बहार बारह अंगुल तक माना गया है ! इसी से वायु को द्वादशांगुल भी कहते है ) एसी वायु के द्वारा जब २१६०० जाप होने लगते है ( अर्थात श्वास क्रिया स्वयं जप क्रिया हो जाती है ) , तब अनाहत नाद उत्पन्न हो जाता है ! तब सुषुम्ना ( बंकनाली ) में सूर्योदय हो जाता है और रोम रोम में तुरी बजने लगती है अर्थात अनाहत का अनुभव होने लगता है ! ( सहस्त्रार ही चेतन तत्व नीचे की ओर गया है ! योगाभ्यास से वह फिर ) उलट कर सहस्त्रार में ही वास पा जाता है और भ्रमर गुफा ( ब्रह्मरन्ध्र ) में ज्योति प्रकाशमान हो जाती है ! इस प्रकार हे मथुरा ( ? ) सुनो , वे साधु ( ऊपर कहे अनुसार साधना करने वाले ) परमतत्व को प्राप्त करते है ॥
‘सोऽहम् साधना’ को ‘अजपा-जप’ अथवा प्राण-गायत्री भी कहा गया है। इसको अजपा-जाप इसलिए कहा गया है, क्योंकि यह जाप अपने आप होता रहता है। इसको जपने की नहीं बल्कि सुनने की आवश्यक्ता है। साथ ही इसको प्राण-गायत्री इसलिए कहा गया है क्योंकि यह जाप प्रत्येक श्वांस के साथ स्वतः ही होता रहता है।
अजपा गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। उसका विज्ञान जानने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसके समान और कोई विद्या नहीं है। इसके बराबर और कोई पुण्य न भूतकाल में हुआ है न भविष्य में ही होगा।
सोऽहम् को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इसमें आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘वह परमात्मा मैं ही हूँ’, इस तत्त्वज्ञान में मायामुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस-मंत्र का चिंतन परम् सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हंसो’, ‘सोऽहम्’ मंत्र कहते है।
जब मन उस हंस तत्व में लीन हो जाता है, तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाता हैं और शक्ति रुप, ज्योती रुप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य-निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशित होता है। समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है, हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर ब्रह्म है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बन कर विद्यमान है।
सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।
जो अमृत से अभिसिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जाप करता है, उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।
जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है, वह त्रिदेव रुप है। सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।
शिव स्वरोदय के अनुसारः- श्वाँस के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में ‘सकार’ जैसी ध्वनी होती है। ‘हकार’ शिवरुप और ‘सकार’ शक्ति रुप कहलाता है।
प्रसंग आता है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान् शंकर से सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाले योग के विषय में पूछा, तो भगवान् शंकर ने इसका उत्तर देते हुए पार्वती जी से कहा- अजपा नाम की गायत्री योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह सुनकर पार्वती जी को इस विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई। इसके सम्पूर्ण विधि-विधान को जानना चाहा। तब भगवान शंकर ने पुनः कहा-हे देवी, यह देह (शरीर) ही देवालय है। जिसमें देव प्रतिमा स्वरुप जीव विद्यमान है। इसलिए अज्ञान रुपी निर्माल्य (पुराने फ़ूल-मालाओं) को त्याग कर ‘सोऽहम्’ भाव से उस (देव) की आराधना करनी चाहिए।
देवी भागवत के अनुसार- हंसयोग में सभी देवताओं का समावेश है, अर्थात् ब्रह्य, विष्णु, महेश, गणेशमय हंसयोग है। हंस ही गुरु है, हंस ही जीव-ब्रह्म अर्थात् आत्मा-परमात्मा है। 'र्गो' देवीमजपामेवं देवतां मरुतं तथा ।।
बीजं 'यं' तमृषिं चास्य कथयन्ति पतञ्जलिम् ॥
यन्त्रं निरञ्जनां भूती सहजां च निरञ्जनाम् ।।
शान्तिं प्रतिफलं चास्य भयनाशं च सवर्तः॥
अर्थात्- 'र्गो' अक्षर की देवी- 'अजपा', देवता- 'मरुत्', बीज- 'यं', ऋषि- 'पतञ्जलि', यन्त्र- 'निरंजनायन्त्रम्', विभूति- 'निरंजना एवं सहजा', स्फूर्ति -- 'शांति एवं भयनाश' हैं ।।
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साँस खींचते समय ‘सो’ की, रोकते समय ‘अ’ की और निकालते समय ‘हम्’ की सूक्ष्म ध्वनि को सुनने का प्रयास करना ही ‘सोऽहम्’ साधना है। इसे किसी भी स्थिति में, किसी भी समय किया जा सकता है। जब भी अवकाश हो, उतनी ही देर इस अभ्यास क्रम को चलाया जा सकता है। यों शुद्ध शरीर, शान्त मन और एकान्त स्थान और कोलाहल रहित वातावरण में कोई भी साधना करने पर उसका प्रतिफ़ल अधिक श्रेयस्कर होता है, अधिक सफ़ल रहता है।
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सोऽहम् साधना विधान
साधना करते समय जब साँस भीतर जा रही हो तब ‘सो’ की भावना, भीतर रूक रही हो तब ‘अ’ का और जब उसे बाहर निकाला जा रहा हो तब ‘हम्’ ध्वनि का ध्यान करना चाहिए। इन शब्दों को मुख से बोलने की आवश्यकता नहीं है। मात्र श्वांस के आवागमन पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और साथ ही यह भावना की जाती है कि आवागमन के साथ दोनों शब्दों की ध्वनि हो रही है।
आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती, किन्तु प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है, वरन् आनन्द का अनुभव होता है।
ध्यान से मन का बिखराव दूर होता है और प्रकृति को एक केन्द्र पर केन्द्रित करने से उससे एक विशेष मानसिक शक्ति उत्पन्न होती है। उससे जिस भी प्रयोजन के लिए- जिस भी केन्द्र पर केन्द्रित किया जाये, उसमें जाग्रति- स्फुरणा उत्पन्न होती है। मस्तिष्कीय प्रसुप्त क्षमताओं को, षट्चक्रों को, तीन ग्रन्थियों को, जिस भी केंद्र पर केन्द्रित किया जाय वहीं सजग हो उठता है और उसके अन्तर्गत जिन सिद्धियों का समावेश है, उसमें तेजस्विता आती है।
सोऽहम् साधना के लिए किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। न समय का, न स्थान का। स्नान जैसा भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी अवकाश हो, सुविधा हो, भाग-दौड़ का काम न हो, मस्तिष्क चिन्ताओं से खाली हो। तभी इसे आरम्भ कर सकते है। यों हर उपासना के लिए स्वच्छता, नियत समय, स्थिर मन के नियम हैं। धूप-दीप से वातावरण को प्रसन्नतादायक बनाने की विधि है। वे अगर सुविधापूर्वक बन सकें तो श्रेष्ठ अन्यथा रात्रि को आँख खुलने पर बिस्तर पर लेटे-लेटे भी इसे किया जा सकता है। यों मेरूदण्ड को सीधा रखकर पद्मासन से बैठना हर साधना में उपयुक्त माना जाता है, पर इस साधना में उन सबका अनिवार्य प्रतिबन्ध नहीं है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाली सोऽहम् साधना-अजपा गायत्री के विज्ञान एवं विधान के समन्वय को हंसयोग कहते हैं। हंसयोग साधना का महत्त्व और प्रतिफल बताते हुए योगविद्या के आचार्यों ने कहा है-
सर्वेषु देवेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्यग्निः कष्ठेषु तिलेषु तैलमिव।
त दिवित्वा न मृत्युमेति-हंसोपनिषद्
जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिलों में तेल रहता है। उसी प्रकार समस्त देहों में ‘हंस’ ब्रह्म रहता है। जो उसे जान लेता है सो मृत्यु से छूट जाता है।
सोऽहम् ध्वनि को निरन्तर करते रहने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है जो उलट कर हंस सदृश प्रतिध्वनित होता है। इसी आधार पर उस साधना का एक नाम हंसयोग भी रखा गया हैं।
हंसो हंसोहमित्येवं पुनरावर्तन क्रमात्।
सोहं सोहं भवेन्नूनमिति योग विदो विदुः-योग रसायनम्
हंसो, हंसोहं-इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही सोह-सोह ऐसा जप होने लगता है। योग वेत्ता इसे जानते हैं।
अभ्यासानंतरं कुर्याद्गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्नति।
चितनं हंसमंत्रस्य योगसिद्धिकरं परम्-योग रसायनम् 303
अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस मन्त्र का चिन्तन, (साँस लेते समय ‘सो’ छोड़ते समय ‘ह’ का चिन्तन) परम सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हंसो’ या ‘सोह’ मंत्र कहते हैं।
हंससयाकृतिविस्तारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदमः।
सर्वेषु देहेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्यग्निः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव।
तं दिवित्वा न मृत्युमेति।
अग्नीषीमौ पक्षावोंकारः शिर उकारों बिन्दुस्त्रिनेत्रं मुखं रुद्रो रुद्राणि चरणौ द्विविधं कण्ठतः कुर्यादित्युन्माः अजपोपसंहार इत्याभिधीयते।
तस्मान्मनों विलीने मनसि गते संकल्पविकल्पे दग्धे पुण्यपापे सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयं ज्योति शुद्धो बुद्धों नित्यों निरंजनः शान्ततमः प्रकाशयतीत वेदानुवचनं भवतीत्युपनिषत्-हंसोपनिषद्
‘हंस’ तत्त्व का आकार विस्तार भुक्ति और मुक्ति दोनों ही देने वाला हैं यह तत्त्व सम्पूर्ण देहधारियों में उसी तर व्याप्त हैं जैसे काष्ठ में अग्नि एवं तिलों में तेल समाया रहता है।
अग्नि और सोम इस हंस के पंख है। ओंकार मस्तक, बिन्दु नेत्र, रुद्र मुख, रुद्राणी चरण, काल भुजाएँ, अग्नि बगलें, तथा सगुण-निर्गुण ब्रह्म उसके दोनों पार्श्व है।
जब मन उस हंस तत्त्व में लीन हो जाता है तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं और शक्ति रूप, ज्योति रूप, शुद्ध-बुद्ध नित्य निरंजन ब्रह्म का प्रकाश, प्रकाशवान होता है।
प्राणिनाँ देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाऽच्युतः।
हंस एव परं सत्यं हंस एवंत सत्यकम्॥
हंस एव परं वाक्यं हंस एवंत वैदिकम्।
हस एवं परो रुद्रो हंस एवं परात्परम्॥
सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एवं महेश्वरः।
हंसज्योतिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम्-ब्रह्मा विद्योपनिषद्
प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप अवस्थित हैं हंस ही परम सत्य हैं हंस ही परम बल है।
समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर हैं हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान् है।
सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।
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नभस्स्थ निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात्। अनाहतध्वनियुत हंसं यो वेद हृद्गतम॥
स्व प्रकाशचिदानन्द स हसं इति गीयते।
नाभिकन्दे समं कृत्वा प्राणापानौ समाहितः मस्तकस्थामृतास्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम्॥
हंसविद्यामृते लोके नास्ति नित्यत्वसाधनम्।
यो ददाति माहविद्या हंसाख्याँ पावनीं पराम्॥
हंसहंसेति यो ब्रू याद्धं सो ब्रह्मा हरिः शिव।
गुरु वक्रात्तु लभ्येत प्रत्यक्षं सर्वतोमुखम्-ब्रह्म विद्योपनिषद्-
जो हृदय में अवस्थित अनाहत ध्वनि सहित प्रकाशवान चिदानन्द ‘हंस’ तत्त्व को जानता है सो ‘हंस’ ही कहा जाता है।
जो अमृत से आय सिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जप करता है उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।
इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाविद्या को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।
जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है वह त्रिदेव रूप है। वह सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।
मनसो हंसः सोऽहं हंस इति तन्मयं यज्ञो नादानुसंधानम्-पाश्पत ब्रह्मोपनिषद्-
मानस ब्रह्म का रूप-हंस है। यही सोऽहम् है। यह हंस बाहर भ्रमण करता है भीतर भी। यह परमात्म स्वरूप है। इसका तन्मयता यज्ञ-नादानुसन्धान है।
हंसात्ममालिका वर्णब्रह्माकालप्रचोदिता।
परमात्मा पुमानिति ब्रह्मसंपत्तिकारिणी-पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्
हंस यह वर्ण ब्रह्म है। इसी से ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
पुरुष और परमात्मा यही है।
हंसविद्यामविज्ञाय मुक्तो यत्र करोति यः ।
स नभोभक्षणेनैव क्षुन्नितृर्ति करिष्यति-सूत संहिता
हंसयोग को जान कर जो प्रयत्न करता है वह सब प्रकार की क्षुधाओं से निवृत्त हो जाता है।
पाशान् छित्वा यथा हंसो निविशकं खमुत्पतेत्।
छिन्नपाश्स्तथा जीवः संसार तरते सदा-क्षूरिकोपनिषद्
जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है
उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है।
हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम्।
हकारः शिवरुपेण सकारः शक्तिरुच्यते-शिव स्वरोदयं
श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में सकार होता है। हकार शिव रूप और सकार शक्ति रूप कहलाता है।
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते।
सूर्य चन्द्रमसोरै क्यं हठ इव्भिधीयते॥
हठेन ग्रस्यते जाडद्य सर्वदोष समुद्भवम्।
क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत्-योग शिखोपनिषद्
हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और प्रकार से चन्द्र या बाम स्वर होता है। इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) से एकता प्राप्त कर लेता है।
हकारेण बहिर्यात सकारेण विशेत्पुनः।
हंस हंसेत्यसु मन्त्र जीवो जपति सर्वदा॥
शट् शतानि त्वहोरात्रे सहस्राष्येकविंशतिः।
एतत्संख्यान्वित मन्त्र जीवो जपति सर्वदा-गोरक्षसंहिता 1,41,42
यह जीव (प्राणवायु) हकार की ध्वनि से बाहर आता और सकार की ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार व सदा हंस हंस मन्त्र का जप करता रहता है।
इस भाँति वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ मन्त्र सदा जपता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर सोऽहम् का संक्षिप्त रूप ‘ॐ’ हो जाता है।
सकारं चहकारं च लोपयित्व प्रयोजनत।
संधि च पूर्व रुपाख्याँ ततोऽसौ प्रणवो भवेत्॥
सोऽहम् पद में से सकार और हकार का लोप करके सन्धि की योजना करने से वह प्रणव (ॐ कार) रूप होता है।

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